डॉ. अशोक कुमार गदिया
चेयरमैन, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस
चेयरमैन, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस
चेयरमैन, विश्वविद्यालय
आज पूरा देश वैश्विक महामारी से जूझ रहा है। पूरा विश्व आशंकित है कि क्या
मानव प्रजाति बचेगी या नहीं? मनुष्य प्रजाति पर इतना बड़ा प्राकृतिक संकट पिछले सौ वर्षों में कभी नहीं आया।
विश्व की सारी महाशक्तियाँ बेबस, लाचार एवं असहाय महसूस कर रही हैं। विज्ञान एवं वैज्ञानिक हतप्रभ हैं। वे बहुत
प्रयास करके भी इस वायरस की काट नहीं ढूंढ पा रहे हैं। शासन-प्रशासन जी-तोड़ कोशिश
कर रहा है। संक्रमण को रोकने पर धीरे-धीरे अपना नियंत्रण खो रहा है। आम लोग दहशत
में हैं। हर तरफ अँधेरा,
अविश्वास, निराशा एवं हताशा का माहौल बढ़ता जा रहा है।
लगभग पूरा विश्व तालों में बंद है। चारों तरफ संत्रास है, बेचैनी है, महामारी तक पहुंचने का भय है, आतंक है,
बदहवासी है। सभी
तरह के विकास,
विज्ञान, प्रौद्योगिकी, होशियारी,
दादागिरी, अस्त्र-शस्त्र, धार्मिक उन्माद एवं अंधविश्वास, टोना-टोटका,
ज्योतिषीय कर्मकांड, झाड़-फूंक, मंदिर-मस्जिद,
गिरजाघरों एवं
गुरुद्वारों में बैठे मठाधीश अपनी जान बचाने में लगे हुए हैं। सभी देवालय वीरान हो
गये हैं। सबकी हेकड़ी निकल गई है। मौत मुंहबाये सामने खड़ी दिख रही है। कभी सोचा है
ऐसा क्यों हो रहा है?
यह प्रकृति के
साथ हुई छेड़छाड़,
दुव्र्यवहार, दुराचार एवं बलात्कार की छोटी-सी चीत्कार है।
अगर मानव प्रजाति नहीं सुधरी तो और बहुत कुछ होगा। ऐसी विनाश लीला होगी कि मानव
प्रजाति का नामलेवा नहीं बचेगा। कहाँ गये तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, तकनीक,
सूचना-
प्रौद्योगिकी,
आयुर्विज्ञान, शोध एवं तमाम तामझाम, तुम तो भगवान यानी प्रकृति को एक दोहन एवं
इस्तेमालशुदा चीज़ मान बैठे। तुमने तो भोग का दर्शन दिया और कहा कि आदमी के आराम
एवं विलासिता के लिये हम प्रकृति का आखिरी हद तक इस्तेमाल करेंगे। हम हवा गंदी
करेंगे। हम पानी गंदा करेंगे। हम जंगल नहीं रहने देंगे। हम सारे जीव-जन्तु, पशु-पक्षी सबको खा जाएंगे। हम अंतरिक्ष को
अपना घर बना देंगें। उसके गर्भ का सारा पानी बाहर निकालकर पाखाने में बहाकर गंदा
कर नदियों में डाल देंगे। और इन्हें गंदा-बदबूदार नाला बना देंगे। हम नहाएंगे नहीं
हफ्तों तक। हम कपड़े नहीं धोएंगे सालों तक। हम अपने बेडरूम में पाखाना बनाएंगे। औरत
और आदमी खड़े-खड़े मूत्र विसर्जन करेंगे। शौच कर धोएंगे नहीं सिर्फ काग़ज़ से साफ
करेंगे। और अपना घर सड़ाएंगे। हम सब बेमेल चीज़ें खाएंगे। ऐसा होगा तो होना ही है।
हम रातभर काम करेंगे। दिनभर सोएंगे। हम शुद्धता एवं पवित्रता का बिल्कुल ध्यान
नहीं रखेंगे। हम अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं अपनी सदाशयता की प्रवृत्ति भूल गये। हम हमेशा प्रकृति के पूजक रहे
हैं। लेकिन अब प्रकृति के भक्षक हो गये हैं। हमें सिखाया गया था कि प्रकृति का
सदुपयोग उतना ही किया जाना चाहिए जितना जीने के लिए आवश्यक हो। परन्तु यह क्या हो
गया?
हम विश्व की भोग
की संस्कृति में डूब गये। हमें फिर अपने स्वर्णिम अतीत को जीवित करना होगा। त्याग, तपस्या, समर्पण एवं सबका संरक्षण सीखना होगा। जड़-चेतन, नभ,
जल एवं थल सबके
दोहन की मनोवृत्ति छोड़नी होगी। इनसे यदि कुछ लेना हो तो याचक के रूप में ज़्यादा
देकर कम लेने का भाव जगाना होगा। सबमें जीव, जड़,
चेतन के दर्शन
करना होगा। तभी होगा सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणी
पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत।। ‘अहिंसा परमो धर्मः’
की संस्कृति
लाकर जियो और जीने दो के सिद्धांत पर चलना होगा। तब बच पायेगी मानव प्रजाति, वरना इसका विनाश तय है। कोरोना का हमला, यह तो मात्र संकेत है। असली विनाश लीला तो
अभी बाकी है। अतः भारतवर्ष के लोगों से करबद्ध प्रार्थना है कि वह अपने मूल
संस्कार,
संस्कृति एवं
कर्तव्यों को पहचानें एवं उनपर चलना प्रारम्भ करें। जाति-पांति, भेदभाव, ऊंच-नीच,
अमीर-ग़रीब, स्त्री-पुरुष, शोषक एवं शोषित,
मजदूर, किसान के भेदभाव को मिटाकर एकसाथ मिलकर
सह-अस्तित्व के भाव को जगाते हुए रहना सीखें। जिसके मूल तत्व हैं-जियो और जीने दो।
जिसकी आत्मा हो-सहकार एवं सहयोग। जिसके कर्म हों-हर हाथ को काम। हर व्यक्ति को
अपनी मेहनत,
लगन एवं प्रतिभा
के आधार पर आगे बढ़ने के समान अवसर। सबको अपने परिश्रम का उचित मेहनताना मिले। सब
खुश रहें। आबाद रहें। मिल-जुलकर विकास करें।
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