आज का युग धर्म
देश के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर
डॉ. अशोक कुमार
गदिया चेयरमैन, मेवाड़ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस
का उद्बोधन
प्रिय मित्रो, आज हम हमारे देश का 75वाँ
स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। यह हमारे लिये अति विशिष्ट आनन्द का विषय है।
इस पावन अवसर पर आपको ढ़ेर सारी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
मैं इस अवसर पर
हमारे स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए लाखों शहीदों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि
देते हुए उन्हें हृदय से प्रणाम करता हूँ। हमारी स्वतंत्रता का इतिहास अदम्य साहस, बलिदानों एवं देश की आज़ादी के लिए हँसते हुए अनाम
कुर्बानी देने का इतिहास है। जिसे हमें कभी नहीं भुलाना चाहिए। जब मैं इतिहास पर
निगाह डालता हूँ तो पाता हूँ कि देश के कोने-कोने से हर वर्ग, हर समाज, हर जाति के लोगों ने निःस्वार्थ रूप से देश
के स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया और अपने सुनहरे भविष्य की चिन्ता किये बगैर
अपने आपको बलिदान कर दिया, बस इस अपेक्षा में कि हमारी
कुर्बानी से आने वाली पीढ़ी को एक आज़ाद भारत में साँस लेने का निर्भीक और स्वछंद
वातावरण मिलेगा। उनके सिर पर गुलामी का बदनुमा दाग न होगा। इस कुर्बानी के दौर में
हर वर्ग की महिलाएँ भी पीछे नहीं रहीं। बल्कि उन्होंने कई मौकों पर पुरुषों से आगे
बढ़कर अपना उदाहरण प्रस्तुत किया और पुरुषों को स्वतंत्रता संग्राम में जमकर संघर्ष
करने का मार्ग दिखाया।
हमारे
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को बारीकी से देखें तो पायेंगे कि इस संग्राम में दो
तरह के महापुरुषांे एवं महिलाओं ने भाग लिया। एक, वे जो ज़्यादा भावुक थे और दूसरे वो जो ज़्यादा भावुक न होकर होशियार थे।
जो भावुक थे उन्होंने हँसते-हँसते अपनी जान की बाज़ी लगा दी और गुमनाम हो गये।
उन्होंने अपने घर परिवार की चिन्ता किये बिना अपने आपको देश की स्वतंत्रता के लिये
कुर्बान कर दिया। उसके बाद उनके परिवारों की बड़ी दुर्दशा हुई, जो हम सबको ज्ञात है और यह हम सब लोगों के लिये बड़ी शर्म की बात भी है कि
आज़ाद भारत के समाज एवं सरकार ने उनको न तो उचित सम्मान दिया और न ही उचित वित्तीय
सहायता। स्वतंत्रता के 75वें साल जिसे अमृत महोत्सव का नाम
दिया गया, उसमें हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र
दामोदर दास मोदी जी ने उन्हें सम्मानपूर्वक याद करने का प्रयास किया, इसके लिए उनका धन्यवाद। दूसरे किस्म के वे लोग थे जिन्होंने आज़ादी के
संग्राम मंे हिस्सा लिया, बढ़-चढ़कर बड़ी होशियारी से अपने और
अपने परिवार को बचाकर उन्होंने अंहिसा एवं समझौते का रास्ता अपनाया। अंग्रेज सरकार
से मिल-जुलकर उनसे स्वतंत्रता का संघर्ष शान्तिपूर्ण तरीके से करते रहे और
अख़बारों की सुर्खियों में बने रहे। कई बार तो ऐसा लगता है कि वो अंग्रेजों के
एजेन्डे पर ही चलकर देश को आज़ाद करवाने का प्रयास कर रहे थे। उन सभी लोगों को यह
पता था कि देश आज़ाद होगा ही होगा, क्योंकि इस देश को छोड़ के
जाना अंग्रेजों की भौगोलिक, राजनैतिक एवं समसामयिक आवश्यकता
थी। दो विश्व युद्धों के पश्चात् वैश्विक परिदृश्य बहुत अधिक अंग्रेजी सल्तनत के
पक्ष में नहीं रहा था। अंग्रेजों को अपना मुल्क बचाना मुश्किल हो रहा था। विश्वभर
में उपनिवेशवाद चरमा रहा था।
हमारा इतिहास
बताता है कि इसलिए ऐसे समझदार एवं होशियार किस्म के देशभक्तों के मन में सत्ता
भोगने के मंसूबे हिलोरें ले रहे थे और इसके मद्देनज़र वे सब अपनी-अपनी स्थिति मजबूत
करने में लग गये थे। जबकि इसमें अपवाद थे-लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र
पाल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, मदन
मोहन मालवीय, वीर सावरकर, महात्मा
गांधी एवं सभी क्रान्तिकारी नेता थे। महात्मा गांधी का नाम लेकर चलने वाले सभी
नेताओं ने वह हर समझौता किया जो अंग्रेज चाहते थे, और
अंग्रेज क्या चाहता था? वह यह चाहता था कि हम भारत तो अवश्य
छोडे़ं लेकिन इसको इस तरह से बाँटकर कमज़ोर कर जाएँ ताकि भारतवासी आगे आने वाले 100 सालों तक ऊपर न उठ सकें। उन्होंने हमें जाति के नाम पर, वर्ग के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर, भाषा के नाम पर, गरीबी-अमीरी के नाम पर, हर तरह से बाँटा और अन्त में भारत माता का अंग भंग कर हमारी माँ को
लहूलुहान कर उसका स्वरूप बिगाड़ने की कुचेष्टा की। जिसके बच्चे अनाथ होकर भटक रहे
थे, आपस में लड़कर मर रहे थे, उन हालात
में हमने अपनी लहूलुहान माँ को पाकर अपनी आज़ादी का जश्न मनाया। उस जश्न में उस समय
के सबसे बड़े जन नेता महात्मा गांधी ने हिस्सा नहीं लिया। क्योंकि उनकी आत्मा रो
रही थी। उस वक्त के सबसे बड़े हिन्दू संगठन हिन्दू महासभा, आर्य
समाज, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी आज़ादी के जश्न में
हिस्सा नहीं लिया था। उस समय के सभी प्रभावशाली राजा-महाराजा भी पसोपेश में थे।
उन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा था कि यह कैसी आज़ादी है! इसलिए उन्होंने भी आज़ादी के
जश्न में हिस्सा नहीं लिया। मुस्लिम लीग जो इस देश के मुसलमानों की सबसे बड़ी
पार्टी थी वह तो अपना अलग देश बना रही थी। इसलिए उसका इस जश्न में हिस्सा लेने का
सवाल ही नहीं था। उस समय की एक और महत्वपूर्ण घटना हुई, वह
यह थी कि अंग्रेजों के निर्देश पर हमारी संविधान सभा बनी। संविधान सभा के लिये
पूरे देश के कांग्रेसी एवं सामाजिक नेता चुने गये। उनमें कोई राजा-महाराजा या उनका
प्रतिनिधि नहीं था। उनमें कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बन्ध रखने वाला भी नहीं
था। मुस्लिम लीग ने तो इस संविधान सभा का बहिष्कार ही किया था। यह संविधान एक
मायने में गांधीवादी कांग्रेसियांे एवं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का ही एक झुण्ड
था, जो अंग्रेजों के निर्देश पर कार्य कर रहा था और उनकी
इच्छा एवं आकांक्षा के अनुरूप हमारा संविधान बना रहा था। उसमें भी महत्वपूर्ण बात
यह थी कि संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान के प्रारूप पर बिल्कुल भी सहमत नहीं थे,
फिर भी हमारा संविधान का प्रारूप सर्वसम्मति से पास हो गया। इस
संविधान में भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक
शक्ति पर गहरी चोट की गई है। यदि यह कहा जाए कि अंग्रेजों द्वारा बनाये गये
संविधान में भारत की आत्मा का गला घोटा गया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। फिर भी
भारत एक महान देश है यहाँ के लोग विश्व में सबसे ज्यादा सहिष्णु हैं, हम सबने अपने स्वतंत्रता दिवस को हर्ष के साथ मनाया और प्रतिवर्ष इसको
अधिक से अधिक उत्साह, उमंग एवं खुशी से मना रहे हैं और आगे
भी मनाते रहेंगे। इस दिन हम उन सभी स्वतंत्रता सेनानियों का जो हमारे देश के लिये
शहीद हुए या जो शहीद तो नहीं हुए पर उन्होंने संघर्ष कर इस देश के क्षत-विक्षत
हालात संभाले और आज इस विकास के नये मुकाम पर लाये, उन सबको
श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं। हम आज़ादी के बाद उन सैनिकों एवं सुरक्षाकर्मियों
को भी प्रणाम करते हैं जिन्होंने हमारे देश को बाहरी एवं आंतरिक हमलों से बचाया।
हम उन शहीदों को विशेष सम्मान देते हैं जिन्होंने हमें सुरक्षित रखने के लिये अपने
आपको शहीद कर दिया। हम इस अवसर पर उन नेताओं, अधिकारियों,
न्यायाधीशों, तमाम पेशेवरों, वैज्ञानिकों, अध्यापकों, समाजसेवियांे
को भी प्रणाम करते हैं जिन्होंने ईमानदारी से पूरी प्रमाणिकता के साथ देश की सेवा
की और इसे आगे बढ़ाया।
अगर हम अपने
इतिहास पर फिर नज़र डालें तो पाएंगे कि अंग्रेजों ने बड़ी ही कुटिलता एवं धूर्ततापूर्वक
हमारे देश के दो टुकड़े करने का प्रयास सन् 1909 से ही प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने पृथक मुस्लिम मत का फैसला कर देश
में फिरकापरस्ती का बीज बो दिया, जो अन्ततोगत्वा देश के
विभाजन के रूप में सामने आया और जब विभाजन हुआ तो ऐसा हुआ कि उस वीभत्स घटनाक्रम
को विश्व इतिहास भुला नहीं सकता। विश्व के कुछ नरसंहारांे में से यह एक भयंकर
नरसंहार था। लगभग 5 लाख निर्दोष लोग बेहरमी से मारे गये।
हजारों महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुए। अपार सम्पत्ति लूटी गई। लाखों लोग बेघर हुए।
भारत को सांप्रदायिकता, विद्वेष एवं नफरत की आग में धकेल
दिया गया। सदियों से चली आ रही साझी संस्कृति एवं भाईचारा तार-तार हो गया। आपसी
विश्वास का संकट पैदा हो गया। भारत के दोनों हिस्से हिन्दुस्तान एवं पाकिस्तान घोर
आर्थिक एवं सामाजिक संकट की चपेट में आ गये।
मित्रों हमारा
देश सन् 1947 के क्षत-विक्षत हालात से आगे बढ़ना शुरू हुआ। हमने
अंग्रेजों द्वारा हम पर थोपा हुआ संविधान अंगीकार किया और यह माना कि इसी संविधान
की सर्वोच्चता को स्थापित रख हम सभी चुनौतियों का मुकाबला करते हुए आगे बढ़ेंगे। जब
आगे बढ़ने की बात आई तो हमारे सामने दो विकल्प थे-आर्थिक एवं सामाजिक विकास की पहल।
हम गांधीवादी मॉडल जो कि विशुद्ध भारतीय मॉडल था। जिसमें हम अपने गाँवों का
सर्वांगीण विकास कर गांवों को आत्मनिर्भर बनाते हुए शहरी विकास की ओर बढ़े, जिसमें कृषि, कुटीर उद्योग, सादगी,
मितव्ययिता, सीमित आवश्यकतानुसार उपभोग,
मातृभाषा में शिक्षा, अध्यात्म एवं नैतिकता पर
ज़ोर था। शासन विकेन्द्रित था। ग्राम पंचायत और ग्रामसभा की सर्वोच्चता पर आधारित
था। दूसरा मॉडल था अधिकतम उपभोग की पाश्चात्य अवधारणा पर काम करना। जिसमें अधिक से
अधिक उत्पादन एवं अधिक से अधिक उपभोग पर ज़ोर था। जिसमें बड़े कल कारखाने लगाना,
बड़े शहर को बसाना था, अधिक से अधिक कृत्रिम
ऊर्जा का उपयोग था और प्राकृतिक संसाधनों का निर्मम दोहन था। हमारे प्रथम
प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दूसरा विकल्प अपनाया। देश के आर्थिक विकास
की बात करने से पूर्व दो मुख्य मुद्दोें पर चर्चा करना आवश्यक होगा। पहला, अंग्रेज सरकार ने बड़ी कुटिलता से देश को तोड़ने- फोड़ने एवं विघटित करने के
उद्देश्य से एक घोषणा की। जिसके तहत सभी
देशी रियासतों को यह छूट दी कि वे चाहें तो भारत में रहें, वे चाहें तो पाकिस्तान में रहंे और वे चाहें तो अपना स्वतंत्रता का
स्थायित्व कायम रखते हुए अपना अलग देश बना लें।
यह बड़ी विषम
चुनौती थी, जिसे हमारे तत्कालीन गृहमंत्री
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बड़ी सूझ-बूझ, समझदारी एवं दृढ़
इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए सभी देशी रियासतों को भारत में मिलाया। जिसमें
जूनागढ़, हैदराबाद एवं जम्मू-कश्मीर की चुनौतियाँ तो बड़ी
पेचीदा एवं कठिन थी, जिसका उन्होंने बड़ी कुशलता से पूरी ताकत
लगाकर समाधान निकाला। जम्मू-कश्मीर की विशेष भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ
सबसे भिन्न थीं। मगर नेहरूजी एवं सरदार पटेल ने मिलकर उसका भी हल भारत के हित में
निकाला, परन्तु इसमें कुछ कमी रह गयी, जिसे
हम आज तक भुगत रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में उस वक्त थोड़ा और ताकत का इस्तेमाल करना
था। यूरोपीय देशों एवं अमेरिका के दबाव में न आकर हमारी सेना का पूर्ण उपयोग करते
हुए इस पूरे प्रदेश को अपने नियंत्रण में लेना था, पर शीर्ष
नेताओं की आपसी समझ एवं समन्वय की कमी से हम ऐसा नहीं कर पाये, जिसकी कीमत हम आज भी चुका रहे हैं।
इसी बीच हमने
चार युद्ध लड़े- 1962, 1965, 1971 एवं 1999
उनका संक्षिप्त
विवरण इस प्रकार है -
(1) 1962 का युद्ध चीन से हुआ,
जो हमने अपनी राजनीतिक कमजोरी की वजह से हारा और तिब्बत प्रदेश जो
एक तटस्थ देश था, उसको चीन को कब्जा करने दिया। तिब्बत से
लगा भारत का बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा जिसे सियाचीन कहते हैं, वह
हमने खो दिया।
(2) 1965 का युद्ध पाकिस्तान से हुआ
जब हमारे प्रधानमंत्री थे लाल बहादुर शास्त्री जी, उनके
नेतृत्व में देश में जय जवान एवं जय किसान का नारा गूंजा। हमारी सेना बहुत ही
बहादुरी से लड़ी और हमने विजय प्राप्त की। उससे हमारी सेना एवं जनता का मनोबल ऊँचा
उठा।
(3) 1971 का युद्ध पुनः पाकिस्तान से
हुआ, उस वक्त हमारी प्रधानमंत्री श्रीमती इंन्दिरा गांधी
थीं। हमारी सेना एवं राजनैतिक नेतृत्व ने बड़ी बहादुरी दिखाई। विश्वभर के मुल्कों
की धमकियों को दरकिनार करते हुए पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये और बांग्लादेश नाम
का नया देश बना दिया।
(4) वर्ष 1999 में हमने एक छोटा युद्ध पाकिस्तान से फिर
लड़ा, उस वक्त हमारे प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी।
हमारे जवान बड़ी मुस्तैदी से लड़ाई लड़े। पाकिस्तान को द्रास एवं कारगिल की पहाड़ियों
से धकेल दिया और भारत की सीमा को अक्षुण्ण रखा ।
उस वक्त हमारे
पास मौका था। वक्त का तकाजा भी था कि हमें पाक अधिकृत कश्मीर अपने कब्जे में करना
था, पर हमसे चूक हुई। हमने ऐसा क्यों नहीं किया, इसके बड़े राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक कारण हैं, मजबूरियाँ हैं, जोकि एक शोध का विषय है।
इन विषम
परिस्थितियों में सन् 1947 से हिन्दुस्तान की
सरकार पण्डित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में काम करने लगी। देश के आर्थिक एवं
सामाजिक विकास के लिये योजना आयोग बनाया गया। जिसके माध्यम से योजनाबद्ध विकास का
सिलसिला प्रारम्भ हुआ।
प्रत्येक योजना
घाटे की योजना होती थी। सरकार हर वर्ष घाटे का बजट बनाती थी और घाटे को पूरा करने
के लिए विदेशी ऋण लेती थी और अपने रुपये का अवमूल्यन करती थी। अधिक से अधिक रुपया
छापकर मुद्रा स्फीति बढ़ाती थी। उसका परिणाम यह होता था कि बेतहाशा महंगाई बढ़ती थी।
विकास का ऐसा मॉडल बनाया गया कि अधिक से अधिक उत्पादन एवं उपभोग बढ़ाया जाए। सरकार
एक वेलफेयर स्टेट के रूप में काम करे और हर वर्ष अपना घाटा बढ़ाती जाए और विदेशी ऋण
बढ़ता जाए। सन् 1990 तक आते-आते हालात ये हो गये
कि हमें अपना सोना गिरवी रखना पड़ा। तब देश के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव बने।
उन्होंने प्रमुख अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया। जिन्होंने भारतीय
अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार के लिये खोल दिया। फिर क्या था पूरे विश्व के पैसे
वाली कम्पनियों ने भारत में आकर अपना आधिपत्य जमाना शुरू किया। देखते ही देखते
पूरा देश आर्थिक रूप से गुलाम हो गया। हमारी आर्थिक स्वायत्तता जाती रही। अब हमारी
आर्थिक नीतियां विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं
बड़ी अमेरिकी, यूरोपीय, जापानी, कोरियन एवं चाइनीज कम्पनियों के दिशा निर्देश पर बनती हैं और हमारा
व्यापार विश्व व्यापार संगठन के नियम कायदों से चलता है। हम चाहकर भी कुछ विशेष
नहीं कर सकते। देश में खुलकर हर वस्तु का सट्टा होने लगा, जिससे
हर वस्तु के दाम आसमान छूने लगे। देश के एक विशेष वर्ग ने उसी समय स्वदेशी की अलख जगाई।
पूरे देश में जनजागरण किया, आन्दोलन किया और फिर भारत को
गांधीजी के रास्ते पर लाने का प्रयास किया। हिन्द स्वराज की बातंे होने लगीं पर जब
जनता ने उनको सत्ता में आने का मौका दिया तो उन्होंने स्वदेशी की बात छोड़कर भारत
के विश्वस्तरीय विकास एवं चकाचौंध के सपने दिखाने शुरू किये। मेड इन इंडिया की जगह
मेक इन इंडिया का नारा बुलन्द होने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि बड़ी-बड़ी विदेशी
कम्पनियों ने अपने एसेम्बली प्लान्ट यहाँ खोल दिये। सारा सामान बाहर से यहाँ आकर
असेम्बल होने लगा और मोहर लगी मेक इन इंडिया। दूसरा नारा लगा स्किल इंडिया का,
छैक्ब्ए क्क्ज्ञटल् आदि ने
करोड़ों रुपये खर्च किये। करोड़ों नौजवान प्रशिक्षित भी हुए, पर
बेरोज़गारी खत्म नहीं हो पाई। तीसरा नारा लगा स्टार्टअप का, जिसमें
जमकर विदेशी पैसा लगा और इसका सारा लाभ विदेशी कम्पनियाँ ले रही हैं। सांप्रदायिक
वैमनस्य एवं आध्यात्मिक उन्माद बढ़ने लगा। अमीरों एवं गरीबों की बीच की खाई और बढ़ने
लगी। मध्यम वर्ग एवं छोटा व्यापारी हर समय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगा और हर
समय पिछड़ता ही गया। उनके बच्चों ने तय किया कि इन परिस्थितियों में हम व्यापार
नहीं कर सकते, हमारे लिए विदेशी एवं देशी कम्पनियों में
नौकरी करना ही श्रेयस्कर होगा। पूरे देश में छोटे व्यापारी एवं पेशेवर खत्म हो रहे
हैं। उनके स्थान पर बड़ी विदेशी कम्पनियाँ अपना प्रभुत्व जमा रही हैं। देश देशी एवं
विदेशी कर्ज़ में डूबा हुआ है। वर्तमान में भारत सरकार पर 1,35,000 लाख करोड़ का कर्ज़ है, जो सन् 2024 तक 1,50,000 लााख करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है।
प्रत्येक राज्य औसतन 3 से 4 लाख करोड़
के कर्ज़ में डूबा हुआ है। सरकार इस दबाव से निकलने के लिये अपनी सभी सम्पत्तियों
को बेचने के लिये मजबूर है। साथ ही साथ सत्ता में रहने के लिए हर तरह की लोक
लुभावन योजनाएं बनाकर जनता के एक विशेष वर्ग को सब कुछ मुफ्त देने पर उतारू है। एक
से बढ़कर एक योजना बनाकर उसे लागू कर चुनाव मैदान में उतर रही है। उसका सीधा भार
करदाताओं पर लाद दिया जा रहा है। भारत के करदाता अपनी आमदनी का 20 से 60 प्रतिशत से भी अधिक कर के रूप में भुगतान
करते हैं, बदले में कोई सरकारी सुविधा प्राप्त नहीं कर पाते।
उल्टा चोर कहलाते हैं। करदाता हर समय पुलिस एवं प्रशासनिक विभागों से आतंकित रहता
है। अकूत भ्रष्टाचार है। प्रशासनिक तानाशाही है। धींगामुश्ती है। खुली लूट-खसोट
है। बेरोज़गारी है। इसके बावजूद भारत एक महान देश है, इसकी
महान संस्कृति है, महान परम्परा है, यहां
के लोग हर परिस्थिति में आगे बढ़ने का जज्बा रखते हैं। आज हमारे युवाओं ने अपनी लगन
एवं परिश्रम के बलबूते पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रखा है। हम हर
क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। चाहे वह शिक्षा हो, स्वास्थ्य
हो, आधारभूत विकास हो, सूचना
प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी विकास हो, पर्यटन हो, फैशन हो, उद्योग हो, कृषि हो,
यातायात हो। आज भौतिक विकास में हम तीव्र गति से आगे बढ़ रहे हैं।
दिन-प्रतिदिन नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं पर उतनी ही तीव्रगति से हम अपना
नैतिक पतन भी कर रहे हैं। आज हमारा सामाजिक ताना-बाना, हमारी
संस्कृति-सभ्यता, हमारे महापुरुष, हमारे
उच्च आदर्श, हमारी शुचिता, हमारा
पर्यावरण, हमारी कृषि, हमारे छोटे
उद्योग-धन्ध,े हमारी उत्पादन क्षमता, हमारी
स्कूली शिक्षा एवं उच्च शिक्षा, राजनीति से प्रभावित है तथा
पूर्णतया सरकार पर अवलम्बित हो गयी है।
इससे हमारे
मौलिक एवं स्वाभाविक विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। परन्तु हम सब लोगों को यह
ध्यान रखना चाहिए कि यह देश हमारा है, इसको महान बनाना हमारा परम कर्तव्य है। इस देश को सशक्त एवं महान बनाने
में कोई बाहर से नहीं आयेगा। यह महत्वपूर्ण कार्य तो हमें ही करना होगा। वह कैसे
होगा और कैसा होगा और कब होगा आइये हम इसको जानते हैं ?
आज का युग धर्म
डॉ0 अशोक कुमार गदिया
महत्व की बात यह
है कि हमारे समाज में आज आने वाली पीढ़ी को कैसे मार्गदर्शन की आवश्यकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम कैसा समाज एवं
राष्ट्र चाहते हैं? उनमें ऐसी कौन-सी विशेषताएँ होनी चाहिएं
जिससे हम विश्व पटल पर सभ्य समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में जाने जा सकें। जब
यह बात ध्यान आती है तो स्वाभाविक रूप से निम्न बिन्दु सामने आते हैं-
1) व्यक्ति मानव मूल्यों का पालक
एवं पोषक हो।
2) व्यक्ति सामाजिक विषयांे पर
संवेदनशील हो तथा सामाजिक असमानता, सार्वजनिक दोषों एवं
कुरीतियांे को दूर करने के लिये प्रतिबद्ध हो।
3) व्यक्ति राष्ट्रभक्त हो,
अपनी संस्कृति, सभ्यता, महापुरुषांे
एवं जीवन मूल्यों पर गर्व करता हो। हर परिस्थिति मंे उसकी पालना करता हो।
4) व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से
पढ़ा-लिखा, होशियार, सजग, स्वस्थ, मजबूत, आत्मविश्वासी
एवं आत्मनिर्भर हो।
5) व्यक्ति या तो अच्छी नौकरी करता
हो या अच्छा व्यवसाय या व्यापार करने में सक्षम हो एवं अपनी विद्या में निपुण हो।
6) हमारी शिक्षा बहुआयामी हो,
जो शिक्षा के बाद रोजगार, व्यापार एवं व्यवसाय
के साथ जुड़ना चाहते हैं, उन्हें वैसा मौका मिले जो साहित्य,
कला, संस्कृति, विज्ञान,
खेल-कूद, योग, व्यायाम,
अध्यात्म, राजनीति आदि में जाना चाहें,
उनको वैसा अवसर प्राप्त हो।
जो अनुसंधान एवं उच्च शिक्षा की ओर जाना चाहें, उनको वह अवसर
उपलब्ध हो। रोजगारपरक शिक्षा सबके लिए हो। यानी तकनीकी एवं व्यवसायिक शिक्षा सबके
लिए उपलब्ध हो। कला, संस्कृति, संगीत,
इतिहास, राजनीति विज्ञान, मेडिकल, खेल-कूद, पर्यावरण आदि
विशिष्ट प्रतिभा वाले लोगों के लिये हों।
7) सामाजिक व्यवस्था जैसे न्याय,
सुरक्षा, व्यापार, व्यवसाय
एवं रोजगार के समान अवसर, स्वच्छता, पर्यावरण
एवं शुद्धता सुनिश्चित हो।
8) हम सब हृदय से सह-अस्तित्व के
सिद्धान्त को स्वीकार करें। उसको ईमानदारी से व्यवहार में लाएं।
9) भारत सरकार एवं सभी राज्य
सरकारें विदेशी कर्ज़ से मुक्त हों। ऐसा संकल्प हर भारतीय का हो।
10) सरकार का प्रथम दायित्व हो,
आम जनता को न्याय एवं सुरक्षा निश्चित करना एवं द्वितीय दायित्व हो
लोक कल्याण।
यदि हम उपरोक्त विषयांे को
ध्यान में रखकर आगे आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करेंगे तो हम वैसा ही समाज एवं
राष्ट्र बनायेंगे, जैसा हम चाहते हैं। आज हम भारत देश पर
निगाह डालें तो पायेंगे कि यह एक विशाल देश है, जहाँ 130 करोड़ लोग रहते हैं। इन 130 करोड़ लोगों में तकरीबन 70 करोड़ युवा हैं। यह शायद विश्व की सबसे अधिक युवा आबादी का देश है। इस
मायने में हमारा देश एक युवा देश है। हालांकि हमारी संस्कृति, सभ्यता एवं अस्तित्व विश्व में सबसे पुराना है। एक युवा देश होने के नाते
हमारे देश में कुछ स्वाभाविक लक्षण होने चाहिएं-जैसे अत्यधिक शक्ति, जोश, स्फूर्ति एवं हर समय कुछ नया एवं विशिष्ट करने
का जज्बा, नयी उमंग, खेलकूद, साहसिक कार्य, अध्ययन एवं अनुसंधान, व्यवसाय, रोजगार, कला-संस्कृति,
देशभक्ति, समाजसेवा, नई
तकनीक, फैशन, साज-सज्जा आदि। क्योंकि
जहाँ युवा पीढ़ी होगी, वहाँ ये कार्य स्वाभाविक रूप से नित
नूतन तरीकों से बढ़िया होंगे। होने भी चाहिएं। परन्तु जब वास्तविकता पर दृष्टिपात
करेंगे तो पायेंगे कि हमारे यहाँ इन सबमें जिस अनुपात मंे प्रगति होनी चाहिए,
उतनी नहीं हुई है। इन सब कार्यों में विश्वस्तरीय हमारी पूर्ण
निपुणता, गुणवत्ता एवं संख्या बहुत कम है। हमारी युवा
जनसंख्या के अनुपात में तो यह बिल्कुल नगण्य है।
इस पिछड़ेपन का
मूल कारण क्या है? बहुत सोचने पर जो
मुझे समझ आता है, वह यह कि हमारे नौजवानों को घर से लेकर
विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय तक में न तो उचित
शिक्षा मिली, न उचित प्रशिक्षण मिला और न ही उचित सलाह एवं
प्रोत्साहन मिला।
कहने का मतलब यह
कि युवाओं का स्वाभाविक विकास नहीं हुआ। उनका विकास व्याप्त रीति-रिवाजों, परिस्थितियों, देखा-देखी,
दुष्प्रचार, गलतफहमी, गलत
सरकारी नीतियों, राजनैतिक दलों की साजिशों और असामाजिक
तत्वों के प्रलोभन से हुआ। उसका नतीजा है हर तरफ अफरा-तफरी, आतंक,
हिंसा, असंतोष, भ्रष्टाचार,
शोषण, जातिवाद, बेरोजगारी,
सरकारी नौकरी का लालच, सरकार पर पूर्ण
निर्भरता, कामचोरी, हरामखोरी, अनुशासनहीनता, चोरी, डकैती,
लूट, झूठ, हेराफेरी,
मिलावट, कम तौल, हत्या,
बलात्कार, आत्महत्या, बेवजह
तनाव, नशाखोरी, सामाजिक असमानता आदि से
हम ग्रसित हैं। हमारी युवा पीढ़ी और इसमें यह मानसिकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही
है।
किसी भी राष्ट्र
एवं समाज को यदि उन्नति के शिखर पर पहुँचना है, खुशहाल होना है तो उस देश का युवा जब तक आत्मविश्वास से भरपूर, आत्मनिर्भर, अपने अधिकारों एवं दायित्वों के
प्रतिपूर्ण रूप से सजग, सामाजिक रूप से संवेदनशील, राष्ट्रीय रूप से देशभक्त, अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं महापुरुषों का आदर करने वाला, मानसिक एवं
शारीरिक रूप से पूर्णतया विकसित और सुदृढ़ नहीं होगा, तब तक
देश उन्नति के शिखर पर नहीं पहुँच सकता। वहाँ का समाज प्रगतिशील एवं सभ्य नहीं हो
सकता।
अतः इस कालखण्ड
में सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एवं सामाजिक कार्य यदि कोई है तो वह है युवा पीढ़ी
के बीच काम करना, उसको अच्छे से
पढ़ाना-लिखाना, प्रशिक्षण देना, सामाजिक
एवं राष्ट्रीय विषयों की पूर्ण प्रमाणिक जानकारी देना और उनमें सामाजिक व
राष्ट्रीय चेतना जागृत करना। उनको इस देश की कला-संस्कृति, संस्कार
एवं महापुरुषों के साथ जोड़ना और उनके प्रति गौरव का भाव पैदा करना। उनमें हर
परिस्थिति में देश एवं समाज के हित में कुछ करते रहने का जज्बा पैदा करना।
समाज के पिछड़े
एवं दबे हुए उपेक्षित तबके के प्रति दया या घृणा का भाव नहीं, अपनेपन का भाव जगाना और लगातार उनके विकास के लिये
कुछ करते रहने का भाव पैदा करना। नौजवानों की अच्छी नौकरी लगवाना। जो अच्छी नौकरी
नहीं कर सकते, उन्हें अच्छे उद्यमी बनने के लिए प्रेरित करना,
हर नवयुवक को अपने व्यक्तित्व को निखारने का सुअवसर प्रदान करना,
उसको एक जिम्मेदार नागरिक बनाना और अंततः उसको अपनी विद्या में एक
कामयाब पेशेवर बनाकर सामाजिक जीवन में भेजना। यह है आज के समय का युग धर्म।
अब यह सवाल उठता
है कि यह सब काम कहाँ होंगे, कब होंगे, कैसे होंगे? और उन्हें कौन करेगा? इन सब प्रश्नों के उत्तर देने से पहले मैं एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता
हूँ कि नौजवान तैयार करने की प्रक्रिया लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। यह कोई एक
दिन, एक सप्ताह या एक माह के प्रशिक्षण शिविर से पूरी नहीं
होने वाली है। इस काम को सरकार तो बिल्कुल भी नहीं कर सकती है।
नौजवान तैयार
करने का काम विद्यालयों, महाविद्यालयांे एवं
विश्वविद्यालयों में दिन-प्रतिदिन होगा। इसको करेंगे प्रतिदिन पढ़ाने वाले अध्यापक,
प्राध्यापक एवं प्रबन्धन के वरिष्ठजन और यह होगा एक विशिष्ट शैक्षणिक
पद्धति का गठन कर उसको उपयोग में लाने से, वह विशिष्ट पद्धति
है जिसमें अध्यापक का कार्य हो।
1. पढ़ना, पढ़ाना
एवं सिखाना
2. व्यावहारिक प्रशिक्षण देना
3. रोजगार दिलाना
4. मित्र या मार्गदर्शक बनना
विद्यार्थियों
के लिये एक मित्र, मार्गदर्शक एवं अच्छे
गुरु का काम करना। ये सभी कार्य अध्यापक की सेवाकार्य का अनिवार्य हिस्सा हो,
उसे इस काम को करना ही करना है और दिन-प्रतिदिन करना है। । जमंबीमत
ींे जव इम ं उमदजवत वत बवनदेमसवत ंदक बवनदेमसपदह उनेज इम ंद पदजमहतंस चंतज व
िीपेध्ीमत कनजलण् इसके साथ ही शैक्षणिक दिनचर्या ऐसी होनी चाहिये कि पढ़ने, पढ़ाने एवं काउंसिलिंग के अतिरिक्त ऐसी गतिविधियाँ, साँस्कृतिक
कार्यक्रम लगातार करते जाना, जिससे विद्यार्थी एवं अध्यापकों
का सर्वांगीण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक,
साँस्कृतिक एवं संवेगात्मक बौद्धिक विकास हो, जिससे
उनमें राष्ट्रभक्ति, समाज के प्रति संवेदनशीलता, राष्ट्र निर्माण एवं सामाजिक बुराइयों को खत्म करने का भाव हर समय जागृत
हो। इस कार्य को करने के लिये हम निम्नलिखित कार्यक्रम कर सकते हैं-
1. समय-समय पर विभिन्न महापुरुषों
की जयन्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली तरीके से मनाना। ताकि उस कार्यक्रम में सम्मिलित
लोग पूर्णरूप से प्रभावित हों और उनमें ऐसा भाव पैदा हो, जिससे
लगे कि हमारी रगों में उन महापुरुषों का रक्त प्रवाहित हो रहा है एवं हम इनकी
संतान हैं। हमें वे सभी काम करने चाहिए जो इन महापुरुषों ने अपने समय और
परिस्थितियों को देखते हुए किये।
2. समसामायिक विषयांे पर संगोष्ठी
एवं सेमिनार आयोजित किए जाएं।
3. सामाजिक एवं संवेदनशील विषयांे
पर नाटकों के मंचन किए जाएँ।
4. सामाजिक विषयों पर परिचर्चा
विषय के विशेषज्ञ को बुलाकर की जाए।
5. प्रेरणादायक, करूणापूर्ण, शिक्षाप्रद चलचित्र दिखाकर संस्कार दिये
जाएं।
6. समाजसेवा के लिये नवयुवकों को
समाज में ले जाकर सामाजिक कार्य कराए जाएं।
7. विभिन्न बीमारियों के निवारण,
उपचार एवं रोकथाम के लिये स्वास्थ्य शिविर लगाए जाएं।
8. सामाजिक, पारिवारिक,
राष्ट्रीय एवं व्यवसायिक सोच रखने वाले पेशेवर व्यक्तित्व को बुलाकर
व्याख्यान एवं प्रशिक्षण शिविर लगवाए जाएं।
9. साँस्कृतिक कार्यक्रम जैसे गीत,
संगीत, नाटक, समूह एवं
एकल नृत्य, रंगोली, पोस्टर, वाद-विवाद, निबन्ध, समूह
परिचर्चा, भूमिका निर्वाह आदि कार्यक्रम लगातार करवाए जाएं।
10. खेलकूद, व्यायाम,
भागदौड़, योग एवं ध्यान आदि कार्यक्रम आयोजित
किए जाएं।
11. एनसीसी. एनएसएस या स्काउट/गाइड
संस्था को आमंत्रित कर उनके कार्यक्रम करवाए जाएं।
इन सब
कार्यक्रमों में युवा अपनी रुचि के अनुसार प्रतिभागी बनें। यह सुनिश्चित करें कि
हर युवा एक या दो गतिविधियों में ज़रूर प्रतिभागी बनें, जिससे उसका सर्वांगीण विकास सुनिश्चिित होगा।
प्राथमिकता के स्तर पर हमें कौन से युवाओं को पढ़ाना चाहिये? किस
पर सबसे पहले काम शुरू होना चाहिए? तो वह है गाँवों से
ताल्लुक रखने वाले गरीब एवं उपेक्षित वर्ग के नौजवान एवं सुदूर इलाकों में रहने
वाले युवा।
कहने का मतलब है
ऐसे युवाओं को प्राथमिकता से शिक्षित एवं प्रशिक्षित करना जिन तक कोई नहीं पहुँचता
हो। श्त्मंबीपदह जव नदतमंबीमकश् ंदक ैमतअपदह च्ववतमेज व िजीम च्ववत ैमबजपवद व
िैवबपमजलश् यह होना चाहिए मूलमंत्र। यदि हम पूरी ईमानदारी एवं पूरी प्रमाणिकता से
इस मिशन पर काम करेंगे तो समाज एवं राष्ट्र को ज़िम्मेदार नागरिक के रूप में युवा
देंगे।
वे ऐसे युवा
होंगे जो आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता,
निपुणता, अनुशासन, ज़िम्मेदारी,
सामाजिक संवेदनशीलता, राष्ट्रभक्ति के भाव से
भरे होंगे। जहाँ जायेंगे, सफल होंगे और अपनी छाप छोड़ेंगे।
उससे बनेगा एक संवेदनशील एवं संस्कारी घर, परिवार एवं समाज
और उससे बनेगा सुदृढ़ राष्ट्र। पर इस महान कार्य को करने के लिये हमें बनाने होंगे
अच्छे अध्यापक। इसके लिये उनका ठीक से चयन करना होगा। उन्हें ठीक से प्रशिक्षित
करना होगा। उन्हें ठीक से प्रोत्साहित करना होगा। जब तक अच्छा अध्यापक नहीं होगा,
बच्चा अच्छा नहीं हो सकता, यह जान लीजिये।
अच्छा अध्यापक होगा, प्रोत्साहन, प्रशिक्षण
एवं उचित मानदेय से। तो आइये समाज एवं राष्ट्र निर्माण में अपना सहयोग दीजिए और लग
जाइये अच्छा युवा एवं अच्छा अध्यापक बनाने में।
‘नहीं
है अब समय कोई गहन निद्रा में सोने का,
समय है एक होने
का, न मतभेदों में खोने का।
समुन्नत एक हो
भारत, यही उद्देश्य है अपना,
स्वयं अब जागकर
हमको जगाना देश है अपना।।’
।। जयहिन्द, जय भारत।।
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