ओ नमक के पहरेदारों !!
ओ नमक के पहरेदारों
देखों तुम्हारा समुद्र लुट
रहा है ,
ओ नफ़रत की खेती करने वालों !
देखों तुम्हारा चमन सूख रहा
है
ओ तंग दिलों के पहरेदारों !
तुम्हारी छोटी समझ से ,
देश बर्बाद हो रहा है
ओ तंग दिल और छोटी समझ के
लोगों !
इस मन से तो परिवार भी नहीं
चलता ,
तुम देश चलानें की बात कर
रहें हो ,
ओ नमक के पहरेदारों !
देखों तुम्हारा समुद्र लुट
रहा है ||
माना कि नाइंसाफी ,अत्याचार
और
दुष्कलंक बहुत झेला है हमनें
,
पर, क्या इसके लिए
सिर्फ आततायी ही जिम्मेदार
है ?
या कुछ हद तक हम भी
ज़िम्मेदार है ?
आवश्यकता है ,
अपने आपको ताकतवर बनाने की
,
कहाँ गई ,
हमारी आत्मसात की विलक्षण
प्रतिभा ,
जो हमसे मिला हमारा होकर रह
गया ,
जिसने हमारे साथ खाया
वह अपना खाना ही भूल गया ,
हमसे मिला तो ऐसे मिला
जैसे दूध में मिसरी ,
बस उस क्षमता को ,
पुनर्जीवित करने की जरुरत
है |
ओ नमक के पहरेदारों !
देखों तुम्हारा समुद्र लुट
रहा है ||
ज़माना बदल रहा है ,
सफ़लता के मापदंड बदल रहें
है ,
इस वक्त श्रेष्ठता की पूजा
हो रही है ,
आओ आपसी मतभेद मिटाकर
जाति –पांति से ऊपर उठकर ,
सबको साथ लेते हुए
श्रेष्ठता की ओर आगे बढ़ें ,
ओ नमक के पहरेदारों !
देखों तुम्हारा समुद्र लुट
रहा है ||
लेखक
डॉ अशोक कुमार गदिया
कुलाधिपति, मेवाड़
विश्वविद्यालय,चित्तौड़गढ़ (राजस्थान )
One of the best post.I appreciate gadiya sir emotion, a true feeling.
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